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जी की कचट. / हरिऔध

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ब्योंत करते ही बरस बीते बहुत।
कर थके लाखों जतन जप जोग तप।
सब दिनों काया बनी जिससे रहे।
हाथ आया वह नहीं काया कलप।

किस तरह हम मरम कहें अपना।
कब न काँटे करम रहा बोता।
तब रहे क्यों भरम धरम क्यों हो।
हाथ ही जब गरम नहीं होता।

आज तक हम बने कहाँ वैसे।
बन गये लोग बन गये जैसे।
जब न सरगरमियाँ मिलीं हम को।
कर सकें हाथ तब गरम कैसे।

रह गया जो धन नहीं तो मत रहे।
है हमारी नेकियों को हर रही।
क्या कहें हम तंगदिल तो थे नहीं।
तंग तंगी हाथ की है कर रही।

पा सका एक भी नहीं मोती।
पड़ गया सिंधु आग के छल में।
तो जले भाग को न क्यों कोसें।
जाय जल हाथ जो गये जल में।

मान मन सब मनचलापन मरतबें।
मन मरे कैसे भला खोता नहीं।
क्यों न वह फँसता दुखों के दाम में।
दाम जिस के हाथ में होता नहीं।

बढ़ गई बेबसी बुढ़ापा की।
चल बसा चैन, सुख हुआ सपना।
दूसरे हाथ में रहें कैसे।
हाथ में हाथ है नहीं अपना।

आँख पुर नेह से रही जिस की।
अब नहीं नेह है उसी तिल में।
खोलता गाँठ जो रहा दिल की।
पड़ गई गाँठ अब उसी दिल में।

फूल हम होवें मगर कुछ भूल से।
दूसरों की आँख में काँटे जँचे।
क्यों बचाये बच सकेगी आबरू।
जी बचायें जो बचाने से बचे।

ठीक था ठीक ठीक जल जाता।
जो सका देख और का न भला।
रंज है देख दूसरों का हित।
जी हमारा जला मगर न जला।

कर सकें हम बराबरी कैसे।
हैं हमें रंगतें मिलीं फीकी।
हम कसर हैं निकालते जी से।
वे कसर हैं निकालते जी की।

उलझनों में रहे न वह उलझा।
कुछ न कुछ दुख सदा लगा न रहे।
नित न टाँगे रहे उसे चिन्ता।
जी बिना ही टँगे टँगा न रहे।

बात अपने भाग की हम क्या कहें।
हम कहाँ तक जी करें अपना कड़ा।
फट गया जी फाट में हम को मिला।
बँट गया जी बाँट में मेरे पड़ा।

देखिये चेहरा उतर मेरा गया।
हैं कलेजे में उतरते दुख नये।
फेर में हम हैं उतरने के पड़े।
आँख से उतरे उतर जी से गये।

हैं बखेड़े सैकड़ों पीछे पड़े।
है बुरा काँटा जिगर में गड़ गया।
फँस गये हैं उलझनों के जाल में।
है बड़े जंजाल में जी पड़ गया।

सूझ वाले उसे रहे रँगते।
रंग उतरा न सूझ का चोखा।
पड़ बृथा धूम धाम धोखे में।
पेट को कब दिया नहीं धोखा।

रोग की आँच जब लगी लगने।
तब भला वह नहीं खले कैसे।
जल रहा पेट जब किसी का है।
आग उस में न तब बले कैसे।

हैं लगाती न ठेस किस दिल को।
टेकियों की ठसक भरी टेंकें।
है कपट काट छाँट कब अच्छी।
पेट को काट कर कहाँ फेंकें।