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जेठ / मनीष कुमार झा

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आतंकी इस जेठ का, मचा हुआ आतंक।
हमला सब पर बोलता, राजा हो या रंक।।

ताप समाया हर जगह, बची नहीं तहसील।
धीरे-धीरे सूखती, संबंधों की झील।।

खाकर चाबुक ग्रीष्म का, सिसक रही है रात।
आए पावस तो जरा, ठंडे हों हालात।।

मानसून की आहटें, शीतल बहे बयार।
मौसम मलमल-सा हुआ, पा मदमस्त फुहार।।

धूप सुहाता ही नहीं, जबसे आया जेठ।
धूप छोड़ कर जोड़ते, सभी छांव से गेठ।।

खड़ा ग्रीष्म बाजार में, भाव खा रही धूप।
सूरज से सब चाहते, जाड़े वाला रूप।।

गाय-भैंस व्याकुल हुए, कुत्ते भी बेचैन।
हाँफ रहा बूढ़ा वृषभ, सूखे दोनों नैन।।

रह-रह कोयल हूकती, दर्दीली-सी तान।
सूख गया रस खेत का, मूर्छित हुआ किसान।।

बरसे जल बौछार तो, भींगे तन-मन प्राण।
ग्रीष्मकाल को चाहिए, शीतलता का दान।।