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जेब का फलसफा / नरेश मेहन

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हम
जब छोटे थे
तब सोचते थे
जेबें बहुत कुछ होती हैं
इसीलिए
पितजी के कुर्ते में
जेब होती है
जिनमें से
निकलते रहते है
रोज-रोज नोट।
हमने भी
सपना देखा
ऐसी ही
अदद जेब का।
चाहा हमारी भी जेब से
निकले मनचाहे नोट।
देखते ही देखते
हमारे भी कपड़ों में
जेबें आ गई।
मैंनें अपनी इन जेबों को
बहुत महफूज रखने का
प्रयास किया।
लेकिन फिर भी जेब
फट जाती थी।
बहुत कम होता था
कि मेरी जेब में
कुछ होता
सिवाय
खाली उंगलिया रेंगने के।
आज चालीस की उम्र में
हमारें सपने ठूट गए
जेब जो पहले नहीं थी
हम खुश थे।
जेब जब
अपनी हुई
न जाने कहां सरक गई।
और हमारें बच्चें
देख रहे हैं वही सपने
जो कभी हमनें देखे थे।
यूं जेबों का सफर
दूसरी पीढ़ी मे चला गया
और
अभावों का फलसफा
बिना सुलझे दरक गया।
आज
जेबों को ताकते
जब भी
अपने पोतों को देखता हूँ
उनमें अपना
अक्स तलाशता हूँ
जो
अनायास ही पा जाएंगे जेबें
और सौंप जाएंगे
अपनी अगली पीढ़ी को
अभावों से भरकर।