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जो इस कोने में आओ तुम कभी क़व्वालियां लेकर / राकेश जोशी

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जो इस कोने में आओ तुम कभी क़व्वालियां लेकर
मिलूंगा चाय की खुशबू-भरी मैं प्यालियाँ लेकर

किसी के बोल देने से कोई छोटा नहीं होता
नहीं होता बड़ा कोई किसी को गालियां देकर

कोई देता है कम्प्यूटर, कोई देता मोबाइल है
खड़े सब भूख के मारे हैं खाली थालियां लेकर

जहां जम्हूरियत का ये तमाशा रोज़ होता है
वहाँ मैं रोज़ जाता हूं, बहुत-सी तालियां लेकर

जो इन बंज़र ज़मीनों पर चलता हल मिले तुमको
उसे गेहूँ की तुम आना वो पहली बालियां देकर

बुझे सपनो, बुझे चूल्हो, डरे लोगो, ज़रा सुन लो
मैं फिर से आ रहा हूँ आग और चिंगारयाँ लेकर