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ज्ञानवापी / बुद्धिनाथ मिश्र

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ज्ञानवापी में गिरा विश्वास का शिव
हाथ पौरुष का बढ़ा उसको निकालो ।

ध्यान में थे मग्न या तुम सो रहे थे ?
जब असुर दल तोड़ने मन्दिर चला था
मजहबी उन्माद से होकर तिरस्कृत
क्यों न बन पाया बनारस कर्बला था ?

विष-बुझे ये प्रश्न अब जीने न देंगे
लाख किरतनिया कवच-कुण्डल सजा लो ।

तुम किसे हो पूजते अन्धे कुएँ में ?
जबकि सदियों से तुम्हारा ईश बन्दी
ग़ौर से देखो, प्रतीक्षा में किसी की
किस तरह पथरा गया है महानन्दी ।

धर्म का यह पोत डूबा जा रहा है
विष्णु का अवतार ले इसको सँभालो।

ज्ञानवापीः धर्म की अपरूप तितली
छिपकली अहमेक है मुँह में दबाए
मोह-मद का तंत्र ले लाठी खड़ा है --
छिपकली को हाय! कोई ना सताए ।

माँग है यह न्याय की, जन की, समय की
हो सके तो आज तितली को बचा लो ।

ये सिपाही लोकरक्षा के लिए हैं
रक्त है जिनमें महाराणा-शिवा का
क्या करें इतिहास के जिह्वा-स्खलन की
ये हिफाजत, हाथ ले तम की पताका ?

तोड़ दो घेरे सभी दुर्नीतियों के
जागरण का फिर नया सूरज उगा लो ।

प्यार दो भरपूर अग्रज का उन्हें तुम
वे नमाजी भी तुम्हारे ही सगे हैं
भूल से, बल से, प्रलोभन से झुके वे
शुरू से दिल्लीश्वरों के मुँहलगे हैं ।

धर्म बदला, वल्दियत बदली नहीं है
सुबह के भटके हुए को घर बुला लो ।

बहुत पूजा राम बन तुमने उदधि को
भक्ति छोड़ो वीरता से वह झुकेगा
जो सुधर पाया न गीता के वचन से
बुद्ध के उपदेश से वह क्या बनेगा !

पार्थ! फिर से करो गीता का स्मरण तुम
और यह गांडीव धनु अपना उठा लो ।