भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज्योति का अक्स / खगेंद्र ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झरोखे के चौकोर से लगा तुम्हारा चेहरा,
और प्रतीक्षारत सजल आँखें तुम्हारी,
इधर मेरा द्विधाग्रस्त अस्तित्व
दोनों के बीच फैलता हुआ है
भयानक, खूंखार सघन जंगल.
 
मैं जो पगडण्डी नाप रहा हूँ
वह जंगल से होकर गुजरती है
भरा हुआ है जो हिंस्र जंतुओं से
लेकिन कोई बात नहीं चिंता की,
मुझे मालूम है
यह पगडण्डी जंगल से बाहर गयी है
जाहिर है मैं भी जाऊंगा
 
कदम-कदम पार करेंगे हम जंगल,
मेरे साथ है तुम्हारी आँखों की ज्योति
और उस ज्योति का अक्स मेरी चेतना में
फिर तो कोई बात नहीं