भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डगर डगर पर छले गये / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
शकुनि चाल के हम पाँसे हैं
मन मरजी से चले गये
डगर डगर पर छले गये
छले गये हम कभी शब्द से
कभी शब्द की सत्ता से
विज्ञापन से, कभी नियति से
और कभी गुणवत्ता से
कभी देव के, कभी दनुज के
पांव तले हम दले गये
डगर डगर पर छले गये
नागनाथ के पुचकारे हम
सांपनाथ के डसे हुए
नख से शिख तक बाजारों की
बाँहों में हम कसे हुए
क्रूर समय की गरम कड़ाही
में निशि-दिन हम तले गये
डगर डगर पर छले गये
कभी भॅंवर ने छला हमें तो
कभी तटों के बन्धन ने
कभी क्रेाध ने कभी काम नहं
कभी शोक औ‘ क्रन्दन ने
हम पिघलाये गये धातु सम
नव सॉंचों में ढ़ले गये
हम सबक सब भरमाये हैं
और ठगे हैं अपनो से
जाने कब तक महल ढहेंगे
इन आँखों के सपनांे से
सख्त हथेली पर सत्ता की
रगड़-रगड़ कर मले गये
डगर डगर पर छले गये