भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डर / दिविक रमेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बस इतना ही मालूम था मुझे
कि एक डोर है यह
जिसका यह सिरा मेरे हाथ में है।

कहाँ है दूसरा सिरा
सब कुछ अदृश्य था
जितना भी खींच लूँ
हिला लूँ कितना भी
कहीं कोई तनाव नहीं था डोर में
हालाँकि
आ बसा था तनाव
पूरा
मेरी देह में

डर भी था कितना
और वह भी अजाना
कि नहीं छोड़ पा रहा था डोर को।

तभी किसी विचार की तरह
न जाने कैसे सूझा
और पाया
वह डोर, डोर थी ही नहीं
एक उँगली थी किसी दैत्य की

मेरा हिलना डुलना
यहाँ तक कि चलना भी
उसी उँगली के वश था

मैं स्वयं
जैसे उसी के वशीभूत था
उसकी अद्भुत आत्मीयता से

उसकी उँगलियों से ही
निरन्तर उतर रही थीं
उदासियाँ
मेरी देह में
कि तन रही थी जो निरन्तर

और मैं
कुर्बानी की हद तक
स्वीकार कर रहा था जिन्हें।

कितनी कठोर होती है सच की समझ
मैंने जाना था।

झटक दिया था
एक ही झटके में
मैंने उस दैत्य की उँगली को

आश्चर्य!
न डर था, न तनाव
मैं स्थिर था
मेरी उदासियाँ तक
कुर्बान हो चली थीं
खुद मुझ पर।