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डायरी से एक पन्ना / ब्रजेश कृष्ण

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आज बैंक से लौटते हुए
रास्ते में मिली एक पहचान की स्त्री
वह अपने घुटनों के दर्द से
इतनी परेशान थी कि रो पड़ी मेरे सामने
मगर मैं दुखी नहीं हुआ उसकी तकलीफ़ से
क्योंकि मेरी जेब भरी थी
और मुझे जल्दी थी घर लौटने की

आज जहाँ खड़े होकर विरोध करना था मुझे
वहीं साथ ली मैंने एक समझदार चुप्पी
खु़द से यह कहते हुए कि हर ग़लत काम को
ठीक करने का ठेका अकेले मेरे पास नहीं है

आज मैंने पूरे शहर को पार किया
और कुछ नहीं देखा
मगर टीवी में देखी एक करुण-कथा
बेचैनी मुझे होने को थी कि मैंने चैनल बदल लिया

आज देखी मैंने अपनी तस्वीर
और खु़द से डरा
आज मैं अपने ही सामने
थोड़ा-सा मरा।