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तथाकथित परम्परावादीक प्रति / राजकमल चौधरी

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जँ नवका ईंटा पाथि हम सभ बना रहल छी अपन दोमहला
गुरुवर, तामस जुनि करू!
जँ अन्हारमे हम सभ नवका रस्ता हेरि रहल छी अनुखन,
कनिओ जुनि डरू!
काव्यक शवपर अहाँक मैथुनी आसन हम सभ नहि छीनि लेब!
मृदु, ललित स्वरेँ विविध रागमे मादक अलापसँ
अहाँ गबै छी, से मधु-गायन नहि छीनि लेब!
पुरखा छलाह मैथिल-कोकिल विद्यापति महाराज
विपुल नितम्ब अति बेकल भेल, पालटि तापर कुन्तल देल
उरज उपर जब देहल दीठि, उर मोरि बइसल हरि करि पीठि
अहाँ लाज जुनि करू, कि सदिखन काव्यक फोलू कंचुकी, नीवी,
दूरहिसँ हम्मर शत-शत प्रणाम, हे महाकवे कवि-सम्मेलन-जीवी!

गितगाइन बनू, मधु छन्द लहरिमे डूबि डूबि बोहिआउ,
करू नहि भाव-अभावक चिन्ता,
करू नहि समाजके अन्तस्तलमे पैसि, हेलि जनसागरमे अथाह
काव्यक अमृतघट, लक्ष्मी, ऐरावत, धन्वन्तरि,
ऊपर करबाक सेहन्ता,
अहाँक लेल त’ काव्य थीक मानस-विलास, रति!
पवनक रथपर कारी बादरि आयल
दूर्वादलपर ओसक छहरल अश्रुविन्दु, कमलिनि मौलायल
जय जय वसन्त, जय जय वसन्त, जय प्रकृति प्रिया
-एहि इतिवृत्तान्तमक वर्णनसँ कयल करू काव्यक कपालक्रिया,
के रोकत, ककरा पलखति छै?
भसिआइत रहइए मोन अहाँके सुनि सुनि कोकिलक गीत,
बीसम शताब्दीक एहि मशीन युगमे आबहु
फैक्टरीक भोंपा नहि, यंत्र-सुन्दरीक लौह खोपा नहि,
टैªक्टरक विकट निनाद नहि, पूँजीपतिसँ श्रमिकक विवाद नहि,
कन्ट्रोलक गहूम, भुखमरी, अकाल नहि, दंगा जुलूस, हड़ताल नहि
-बजैत अछि कर्णकुहरमे एखनहुँ निर्झर-संगीत।
मुदा, के टोकत, ककरा अवगति छइ!
कविवर सुनू, परम्पराक ई छाहरि,
सहस्रछिद्र चालनिक छाहरि थीक,
नवयुगक किरणजालसँ भए सकत आब नहि रक्षा।
साहित्यक निर्माणक मन्दिरके जुनि बुझिअउ स्कूलक कक्षा,
जे-जे कहबै अहाँ से सभ मानि लेत
जँ युगसँ पाछू रहब, विश्व मृतक अहाँके जानि लेत
नवतुरिया-समाजके हाँकि सकत नहि एक्को छन
स्वर्गस्थ पितामहक ओ टूटल फराठी
नहि ककरो लगतइ चोट, जे कतबा एकसरमे भाँजत लाठी!

कारी बादरिकेँ सुमुखिक केशपाश बुझि, ओझराएल रहब
वा, खेतक फाटल दरारिके जल-बल सँ मूनब?
ढहल भीतकँ फोड़ि बनाएब नूतन, स्वस्थ दोमहला
वा, नढ़िया बनि अप्पन हाथेँ अप्पन सारा खूनब?
हे अतीतद्रष्टा युगभ्रष्टा, गीतकार!
पुरना विधान, पुरना यति, गति, लय, छन्द, ताल, मात्रा
नहि चलत आब, नहि चलत आब, नहि चलत
युगधाराके संग घए, साहित्य करैत अछि नव यात्रा
कविता आब नहि अछि नायिका भेद, नख-सिख सिंगार,
कविता नहि अछि रतिविपरीतक उनटल ग्रीवा-हार,
कविता थिक जन-भैरवी, सर्वहाराक क्रुद्ध हुंकार
कविता थिक जनजीवनक अग्निप्राण जयघोष,
कवि, जुनि करू रोष
जँ अहाँ पुरनका धुड़खुड़, पुरना खुट्टा नहि छोड़ि सकै छी
हमरा सभकेँ जुनि दिअ दोष,
जँ अहाँ सड़लका, जर्जर छान-बान नहि तोड़ि सकै छी

कविवर, अपने परम सुगन्धित दिवास्वप्न देखैत रहू
हम सभ त दुःकालक दुर्गन्धि ज्वालमे सदति जरै छी!
दस ताड़ ऊँच मचान गाड़ि, तै पर बैसि गबैत रहू
हम सभ त धरतीपर जल प्रलय रुद्ध करबाक प्रयत्न करै छी!
आ, ई के कहलक जे हम सभ एकस्वर-एकसर छी,
ई के कहलक जे हमरा संगे नहि अछि जन समाज?
गायब, गाबिकेँ लोक रिझाएब नहि थिक कविता
लय छन्दक ईटासँ बान्हल इनार थिक, पोखरि थिक,
कथमपि नहि थिक सरिता,

बेंग मुदा, सरिता नहि डूबए
वामन नीलगगन नहि छूबए!

ई गप्प अहाँके के बुझबए
आँखि राखि जे आन्हर अछि, तकरा के रस्ता सुझबए
काव्य तूर थिक, धुनैत रहू
अनका नहि फुरसति छैक एत्तेक जे धनि सकतै
जे जे फुरैछ से गाबि लिअ
अनका नहि छुट्टी छैक एत्तेक जे सुनि सकतै!

(मिथिला दर्शन। जुलाइ-अगस्त 1959)