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तनहा मंज़र हैं तो क्या / ध्रुव गुप्त

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तनहा मंज़र हैं तो क्या
सात समंदर हैं तो क्या

ज़रा सिकुड़ के सो लेंगे
छोटी चादर है तो क्या

चांद सुकूं तो देता है
ज़द से बाहर हैं तो क्या

हम भी शीशे के न हुए
हर सू पत्थर हैं तो क्या

हम सा दिल लेकर आओ
जिस्म बराबर हैं तो क्या

बिजली सबपर गिरती है
मेरा ही घर हैं तो क्या

तू भी सीने से लग जा
हाथ में खंज़र है तो क्या

डगर डगर भटकाती है
दिल के अंदर हैं तो क्या