भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तब आना तुम / सुनीता जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं तुमको क्या कह दूँ
जब मैं ही अपने में,
गिरे हुए पत्ते-सा, झंझा में,
टिकती नहीं कहीं भी

मैं जब अपने को
अपने में पा लूँगी,
खड़े कुमुद-सा पानी में
सूरज से पाँख नहा लूँगी,
हाथों से तर्पण कर
गंध निज कोर बसा लूँगी

तब आना तुम कविता
मैं खिल, पराग-सा तुमको
अपनी हर पोर अँजा लूँगी