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तमाम उम्र रहा दर्द की रिदा ओढ़े / कविता सिंह

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तमाम उम्र रहा दर्द की रिदा ओढ़े
थका हुआ था बदन सो गया क़ज़ा ओढ़े

सुकूत तारी है जिस सिम्त भी नज़र डाली
हयात आयी नज़र दर्दे इंतेहा ओढ़े

अभी जो आँख की कोरों में इक नमी-सी है
ये अश्क जज़्ब ही हो जायेंगे सज़ा ओढ़े

क़फ़स के कैद से आज़ाद कैसे हो पाखी
के रूह थक गई है जिस्म की क़बा ओढ़े

शफ़क़-सी शाम दरो बाम पर उतर आई
गमों की दर्द भरी देखिए सदा ओढ़े

वफ़ा की खा के कसम बेवफ़ा हुए कितने
खड़ी है अब भी 'वफ़ा' देखिये वफ़ा ओढ़े