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तमाम रू-ए-ज़मीं पर सुकूत छाया था / रफ़ीक राज़

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तमाम रू-ए-ज़मीं पर सुकूत छाया था
नुज़ूल कैसी क़यामत का होने वाला था

यहाँ तो आग उगलती है ये ज़मीं हर सू
वो एक अब्र का पारा कहाँ पे बरसा था

बस एक बार हुआ था वजूद का एहसास
बस एक बार दरीचे से उन ने झाँका था

अभी डसा न गया था ये जिस्म तपता हुआ
अभी ख़जीना-ए-मख़्फी पे साँप सोया था

सफ़र में सर पे तिरी धुन तो थी सवार मगर
निगाह में कोई मंज़िल न कोई रस्ता था

ये क़तरा बहर-ए-मआनी है मौज-ज़न जिस में
क़लम की नोक से पहले कभी न टपका था