भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तमाशबीन / रेखा चमोली

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खाने का कोई सूक्ष्म कण
दॉत में फॅस जाने पर
जीभ बार बार उसी पर चली जाती है
और तब तक जाती रहती है
जब तक उसे बाहर न निकाल फेंके
सोचती हूॅ
कैसे हर रोज
ऑखों को चुभते द्रश्यों को देख पाती हूॅ
झल्ला क्यों नहीं उटती
सुनती हॅू बहुत कुछ अप्रिय
करती हूॅ अनचाहा
ये कैसी आदतें हैं जो मेरे
मन और चेतना को ही सुखाने पर लगी हैं
मेरी छटपटाहटों की बाढ को
दुनियादारी की नहरें रोक लेती हैं
कदम-कदम पर
मेरा दिमाग मेरे दिल पर लगातार
जीत दर्ज करा रहा है
और मैं बेबस खडी हूॅ
किसी तमाशबीन की तरह।