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तसव्वुर के सहारे यूँ शब-ए-ग़म / 'अनवर' साबरी

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तसव्वुर के सहारे यूँ शब-ए-ग़म ख़त्म की मैं ने
जहाँ दिल की ख़लिश उभरी तुम्हें आवाज़ दी मैं ने

तलब की राह में खा कर शिकस्त-ए-आगही मैं ने
जुनूँ की कामयाबी पर मुबारक-बाद दी मैं ने

दम-ए-आख़िर बहुत अच्छा किया तशरीफ़ ले आए
सलाम-ए-रुख़्सताना को पुकारा था अभी मैं ने

ज़बाँ से जब न कुछ यारा-ए-शरह-ए-आरज़ू पाया
निगाहों से हुज़ूर-ए-हुस्न अक्सर बात की मैं ने

नशेमन को भी इक परतव क़फ़स का जान कर 'अनवर'
बसा-औक़ात की है बिजलियों की रह-बरी मैं ने