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तस्वीर का मौन / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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उस मौन को
मेरे विनीत प्रणाम है !
– जो बार-बार
अपार सागर-सा प्रकट हो
घेर लेता
चेतना की नाव को-
अपने निगूढ़, अमेय ताल में
खींचकर,
टिकने न देता
एक पल,
कर बुदबुदों से विकल,
देता छोड़ छिन्न बहाव को !
वह मौन –
मेरी दृष्टि में चिर प्यास है !
– तसवीर में अनबोल छाँह-प्रकाश,
इन अंकित पड़े नीरंग होठों पर
–तलफते चुम्बनों में घुट रहा मधुमास,
-तेरे चित्र का उच्छ्वास,
-वह मौन मेरे मौन का इतिहास है !
मैं स्वर न देना चाहता हूँ उसे,
डर है,- बाख रहे रस-बिंदु जो
वे भी न छिन जाएँ
लपट के लोक में !
उस मौन को
मेरे विनीत प्रणाम है !
यह रच रहा हूँ
शब्द, लय, झंकार जो;
तो इसलिए केवल
कि ये व्यवधान हैं;
हटा दूँ क़ायदे से इन्हें,
विनिमय हो परस्पर मौन का