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तिरस्कार करने पर / प्रेमशंकर रघुवंशी

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तिरस्कार करने पर बोलो क्या पाओगे
नफ़रत की भाषा में कब तक गा पाओगे ?

ख़ुद के ही हाथों क्यों ख़ुद को ही मार रहे
बिना किए काम धाम ख़ुद से ही हार रहे
ओछी इस हरकत में कब तक रह पाओगे ?

जिस जिसने तन मन में अहंकार ओढ़ा है
उस उसने जीवन के घट का रस फ़ोड़ा है
रोप रहे यदि बबूल आम कहाँ खाओगे ?