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तुमने स्वर के आलोक-ढले / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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तुमने स्वर के आलोक-ढले
गाये हैं गाने गले-गले।

बचकर भव की भंगुरता से
रागों के सुमनों के बासे
रंग-रेणु-गन्ध के वे भासे
मीड़ों के नीड़ों से निकले।

नश्वरता पर सस्वर छाये
जैसे पल्लव के दल आये,
वन के वसन्त के मन भाये
जैसे जन बैठे छाँह-तले।

बोले, अब अपना पथ सूझा,
भूला जीवन-प्रकरण बूझा,
प्रबल से प्रबलतर अरि जूझा,
रोके जो सहसा चक्र चले।