भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारा शैशव / विजय सिंह नाहटा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारा शैशव
इन पहाड़ी ढलानों पर चढते उतरते
घिस गया है
और;
इन चट्टानों का नुकीलापन
बेहद नरम, बेहद पारदर्शी हो गया है
तुम्हारा यौवन रेत के विकराल समन्दर में
दफन हो गया है गहरे
और;
एक सदानीरा नदी अतल में
कलकल बहने लगी है
तुम्हारा
समग्र जीवन संगीत
एक भूली बिसरीसी किंवदंती बनकर
हवा में उड़ रहा है
दिगदिगंत तक फैला एक महा विस्तार
और;
कहीं एक अस्फुट भाषा में
निकल बाहर आया कोंपल के रचाव में
गोया; एक समग्र आख्यान उतर आया एक सूत्र भर में
हूँ एक सपना अ-घटित, अ-फलित, निष्फल
लाख हो पहरे मुझे तो क्या हुआ?
हदबंदियों के पार तीव्र प्रहार हूँ मैं
औ' अनुज्ञा सार्वभौम प्रयाण की धारे
वहन करता अमर पौरुष
सलाखें लांघ कर आऊंगा तुम तक
और; खींच लाऊंगा तुम्हे
तुम्हारे जीर्ण शीर्ण धूल धूसर
अस्तित्व की जर्जर डोर थामे
पुरातन कुटीर जगमगा उठा ज्यों देह गंध से
पढूंगा तुम्हारा समृद्ध यायावर वृत्तान्त: याद में मढा
और; सब तरफ़ फैल जाएगा अदृश्य मौन
पवित्र अहसास में लिपटा हुआ एक कुतूहल
रात्रि के मौन में तुम्हारा पथ रोक लेगा लिपट कर
तुम्हारे स्वागत में प्रतीक्षातुर खड़ी रहेंगी: निपट अकेली
मिट्टी की सौंधी-सी महक
कुहासे में डूबी हुई।