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तुम्हारी अपरिचित आकृति को देख कर / अज्ञेय

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 तुम्हारी अपरिचित आकृति को देख कर क्यों मेरे ओठ एकाएक उन्मत्त लालसा से धधक उठे हैं?
तुम्हारी अज्ञात आत्मा तक पहुँचने के लिए क्यों मेरा अन्तर पिंजरबद्ध व्याघ्र की तरह छटपटा रहा है?
मैं बन्दी हूँ, परेदशी हूँ। मेरा शरीर लौह शृंखलाओं में बँधा है। मेरा रोम-रोम इस परायेपन की पीड़ा से व्याकुल हो रहा है, मेरी नाड़ी के प्रत्येक स्पन्दन से पुकार उठती है, 'तुम यहाँ नहीं हो-तुम हो ही नहीं; और वह, वह एक दूसरी सृष्टि में बीते हुए तुम्हारे भूतकाल से अधिक तुम्हारी कुछ नहीं है।'
मै परदेशी हूँ। मेरी जाति तुम्हारी जाति से परिचित नहीं है। मेरी आत्मा का तुम्हारी आत्मा से कोई सान्निध्य नहीं है।
फिर क्यों मेरी आत्मा बद्ध व्याघ्र ही तरह छटपटा रही है, क्यों मेरे ओठ इस प्रकम्पित, उन्मत्त लालसा से धधक उठे हैं?

दिल्ली जेल, 19 जुलाई, 1933