भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी माँग का कुंकुम / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


उड़ रहा है आज यह कैसे
तुम्हारी माँग का कुंकुम !

बहुत ही पास से मैंने तुम्हें देखा
न थी मुख पर कहीं उल्लास की रेखा,
न जाने क्यों रहीं केवल खड़ीं तुम पद-जड़ित गुमसुम!

मिला है जब तुम्हें यह गीतमय जीवन
बताओ क्यों हुआ विक्षुब्ध फिर तन-मन ?
न जाने किस भविष्यत् के विचारों से व्यथित हो तुम !

बुझा-सा हो रहा मुख-चंद्र चमकीला,
कि है प्रतिश्वास भारी, रंग-तन पीला,
न जाने आज क्यों हर वाटिका में जीर्ण-शीर्ण कुसुम !
1949