भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे आंख के आंसू / उर्मिलेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इधर मुझको निमंत्रण दे रहा है फर्ज सीमा का
उधर मुझको बुलाते हैं तुम्हारे आँख के आंसू
मुझे क्यों आजमाते हैं तुम्हारे आँख के आँसू

ये दायाँ हाथ घायल था, गया फिर भी समर को मैं
मिली पाती तुम्हारी धैर्य दे पाया ना उर को मैं
विवश हो लिख रहा हूँ आज बायें हाथ से चिट्ठी
ना रोना, और कुछ दिन लौट पाउँगा ना घर को मैं

तुम्हे लिखते हुए ये बात मेरा मन तड़पता है
दृगों में घूम जाते हैं, तुम्हारी आँख के आँसू।

इसी से आ ना पाउँगा कहीं कायर ना कहलाऊँ
पिया है दूध जिस माँ का उसे लज्जित न कर पाऊँ
रहेगी सांस जब तक देह में लड़ता रहूँगा मैं
करो तुम प्रार्थना प्रभु से, लड़ाई जीतकर आऊँ

ना जाने क्यों कभी जब दर्द से बोझिल हृदय होता
मुझे हल्का बनाते हैं तुम्हारी आँख के आँसू।

पिता बीमार हैं, उठकर दवा उनको पिला देना
अपाहिज माँ उन्हें चलकर ज़रा रास्ता बता देना
कभी जब याद कर "भोलू" मुझे आँखे भिगोये तब
उसे उस ताक पर मेरा रखा फ़ोटो दिखा देना

यहाँ सब साथियों के बीच घर की बात चलती है
मुझे अक्सर रुलाते हैं तुम्हारी आँख के आँसू।

तुम्हारी माँग का सिंदूर जब-जब याद आता है
रगों में लाल शोणित क्या पता क्यों दौड़ जाता है
तुम्हारी पायलों के स्वर यहाँ तोपों में सुनता हूँ
तुम्हारी चूड़ियों का शोर रण का राग गाता है

सुदृढ़ चट्टान सा रणभूमि में रहता खड़ा हर पल
सदा धीरज बंधाते हैं, तुम्हारी आँख के आँसू।

अगर मैं बच गया तो फिर तुम्हारे पास आऊँगा
तुम्हारी कामनाओं को नये गहने पिन्हाउंगा
अगर वापस ना आ पाया तो मन में रंज ना करना
तुम्हे अगले जनम में फिर प्रिये दुल्हन बनाऊंगा

कभी जब इस तरह से सोचता हूँ तब ना जाने क्यों
मुझे तिल-तिल घुलाते हैं तुम्हारी आँख के आँसू।