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तुम्हारे बिना / सुदर्शन वशिष्ठ

Kavita Kosh से
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तुम सोचते हो
तुम्हारे बिना रुक जाएँगे सारे काम
ठहर जाएँगी घड़ी की सूइयाँ।

ऐसा नहीं है
सब कुछ होगा तुम्हारे बिना भी
स्कूल की घँटी बजेगी
बच्चों की रीढ़ की हड्डी
बीमार होगी बस्ते के भार से
आँखों में लगेंगे चश्मे
बाबू भागेंगे दफ्तर
अफसर आराम से चलेंगे
बस स्टैण्ड पर रुकेगी ट्रैफिक
लाल बत्ती वाली गाड़ियाँ निकलेंगी आगे
लोग लटकेंगे बसों की पायदानों पर।

टेलीविजन पर आएँगी बार-बार वही खबरें
चिंतित दिखेंगे नेता सूखे बाढ़ पर
अपने सुरक्षा कवच बढ़ाते हुए
संवेदनाएँ प्रसारित करेंगे नरसँहार पर
सरकारों में
कभी होंगे पक्ष-विपक्ष
कभी पक्ष में ही विपक्ष बनेगा
सरकार चलाने की नहीं
हमेशा गिराने की बात होगी।

सब काम होंगे तुम्हारे बिना भी
सूरज तो निकलेगा ही
धूप खिलेगी
बादल भी आयेंगे
चिड़िया चहचहाएँगी
बाज भी लगाएँगे घात
गर्मियों में हो जाएगी बरसात
कभी बरसात में पड़ेगा सूखा
आधी बँटेगी आधी घटेगी राहत।

तुम्हारे बिना भी माल रोड पर
घूमेंगे कलाकार साहित्यकार और बेकार
निरर्थक करेंगे चर्चाएँ
उत्तेजित होंगे नरम पड़ेंगे
चाय घरों में बिल भरेंगे।

तुम्हारे बिना भी चलेगी अकादमी
और भाषा विभाग
दिवस जयन्तियाँ मनाई जाएँगी
लेखक करेंगे आरोप प्रत्यारोप
अखबारों में चलेंगी अँतहीन बहसें
तुम्हारे बिना भी समारोहों में
नाराज़ होंगे
मुख्य अतिथि के समक्ष कविता
न पढ़वाने पर।

सचिवालय में होंगी बैठकें
वह सब पारित होगा ध्वनि मत से
जो दूर है जीवन की सच्चाई से
एक सिर हिलने से
सभी कह उठेंगे 'हाँ-हाँ'
न कहने की हिम्मत नहीं होगी किसी में
विधान सभा में जाएँगी
गलत फलत सूचनाएँ
चर्चा होगी ऐसे प्रश्न पर
उत्तर नहीं जिसका किसी के पास।

तुम्हारे बिना भी गोष्ठियों में
आम आदमी पर की जाएँगी परिचर्चाएँ
तीन-तीन ब्याह किये विद्वान करेंगे
महिला अधिकारों की व्याख्याएँ
अमीर लेखक
देंगे व्याख्यान दलित लेखन पर।

तुम्हारे बिना भी
पकड़े जायेंगे पटवारी और बाबू
रिश्वत लेते निलँबित भी होंगे
दूसरी ओर
होगी बड़े से बड़े घोटालों की
छोटी से छोटी जाँच।

तुम सोचते हो
मेरे बिना यह कैसे होगा
वह कैसे होगा
जब तुम नहीं थे
तब भी चलते थे सब काम
अब क्यों कर रुकेगा
कुछ तुम्हारे बिना
सब वैसा ही होगा
तुम्हारे बिना सभी होंगे
नहीं होंगे
तो केवल तुम।