भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या / शहरयार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या

तमाम ख़ल्के-ख़ुदा इस जगह रूकी क्यों है
यहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या

लहू-लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को
किसी को ख़ौफ़ यहाँ रात का नहीं है क्या

मैं एक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिमे-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या

उजाड़ते हैं जो नादाँ इसे उजड़ने दो
कि उजड़ा शहर दोबारा बसा नहीं है क्या