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तुम कहते हो / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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तुम कहते हो आज सभ्यता बढ़ रही
बढ़ती जाती पल-पल गति विज्ञान की;
लगता तुम्हें कि स्वयं तुम्हारी बुद्धि के
वैभव पर है चकित बुद्धि भगवान की॥1॥

पर मुझको लग रहा कि ज्यों-ज्यों बढ़ रही
आज सभ्यता यह, औ’ गति विज्ञान की;
त्यों-त्यों सब कुछ बढ़ता जाता हो भले
पर घटती जाती कीमत इंसन की॥2॥

क्या मैं पूछ सकूँगा तुमसे प्रश्न यह
फिर क्यों तुम इसके पीछे हैरान हो?
माना जन्म दिया तुमने ही है इसे
पर सोचो तुम, समझदार इंसन हो॥3॥

ऐसी भी सभ्यता और विज्ञान क्या
मृत्यु खड़ी कर दी जिसने हर द्वार पर!
उस मानव के जिसने जनम दिया इसे
बनी प्रलय है उसके ही संसर पर!॥4॥

भय आशंका और घृणा की भीतिपर
जिसके रंग-बिरंगे चित्र खिंचे हुए;
भूल प्रेम-विश्वास-प्रीति की राह को
एक-दूसरे के हम शत्रु बने हुए॥5॥

एक समयथा जब कि ढूँढ़ हमने लिया
छिपे हुए अपने अंदर भगवान को;
किंतु आज पा रहे नहीं पहचान हम
खुद अपने ही को, साथी इंसान को॥6॥

जिसमें खुद इंसान बना शैतान है,
नहीं किसी का धरम-करम ईमान है,
तुम कहते यह नवयुग की पहचान है,
और तुम्हें इस पर पूरा अभिमान है॥7॥

किंतु मुझे तो लगता तुम दो-चार के
चंगुल में फँस आज विवश इंसन है,
चौराहे पर चीख रही इंसानियत
यह भी क्या सभ्यता और विज्ञान है?॥8॥

15.8.58