भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम चिर-अखंड आलोक / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 तुम चिर-अखंड आलोक!
तुम खर-निदाघ-ज्वाल की ऊध्र्वंग तप्त पुकार
तुम सघन-पावस व्योम से उल्लास धारासार,
तुम शीत के विच्छिन्न धूमिल कम्पमय संसार-
तुम मधु निशा के विपुल पुलकित प्राण-रस-संचार!

तुम समय-वयस सहचर, तुम्हें बाँधे जगत का भार,
पर सह-पथिक आदिम अनादि तुम्हीं अपरिमित प्यार।
तुम सकल जीवन की तृषा तुम हूक एक सदेह-
तुम स्वाति-से चल-तरल किन्तु सदा अचंचल स्नेह!
तुम चिर-अखंड आलोक!

1934