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तुम चुप क्यों हो / कुमार कृष्ण

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तुम चुप क्यों हो दोस्त
क्या बंजर हो गया है कविता का खेत
क्या बह गए हैं तुम्हारे कोरे काग़ज़ यमुना के जल में
क्या वैशाख की धूप ने सुखा दिए हैं सम्वेदना के चोये
महानगर के चाकू ने काट डाली है रिश्तों की फाँक
क्या दिल्ली के गणित और कविता के बीजगणित में
फँस गई है कोई फाँस
क्या सपनों की बोरी में
दब गई है शिमला की रात
क्या दिल्ली की गलियों ने ठग लिया चम्बा का भात
मैं जानता हूँ-
हमेशा करती है राजधानी राजाओं की बात
सदियों पुराना है राजा और कविता का रिश्ता
यह दूसरी बात है
राजा को खुश करती थी पहले कविता
आज कुछ दुःखी है कविता से राजा
फिर तुम चुप क्यों हो दोस्त, चुप क्यों हो
इससे पहले कि वाशिंगटनिये कूड़ाघर में बदल डालें
तुम्हारा हस्तिनापुर
तुम कविता के खेतों में
कलकत्ता की पटसन बोना शुरू कर दो
इससे पहले कि सुष्मिता सेन की टूटी चप्पल
बिकने लगे जनपथ पर
तुम ओटावा के बनिये की गिरफ्तारी के इन्तजाम में
जुट जाओ
इससे पहले कि ठूँठ हो जाए-
पूरी पृथ्वी की संवेदना
तुम शिकागो रेडियो के मुँह में
रुई ठूँसने की कोई साजिश रचो
इससे पहले कि नीम की पेड़ की छाँव को
भूलने लगे ज़मीन
तुम कविता की बंकर में कूद जाओ
इससे पहले कि लाल किले पर उड़ने लगें
सोने की चिड़ियाँ
तुम अपने पुराने चीनी पेन को
हाथों में थाम लो दोस्त,
पूरी ताकत के साथ जहाँ ठीक समझो
वहाँ वार करो
पर चुप मत रहो मेरे दोस्त
तुम्हारी चिट्ठी मेरे दरवाजे की
जब भी पीठ थपथपाएगी
मैं हमेशा पाऊँगा तुमको अपने पास
तुम जिसे चिट्ठी कहते हो दोस्त,
वह मेरे लिए-
हातों के हाथ की काँगड़ी है
जो सेंकती है उसके अनगिनत सपने और थकान
सच कहता हूँ दोस्त-
उससे भी बढ़कर वह है मेरे लिए
बेशुमार खिड़कियों वाला एक सुन्दर मकान
भाई साहब की सेहत कैसी है यह भी लिखना
लिखना कि कितना सही है प्रवाल का सच
क्या कभी मिले किताबों के व्यापारी-हस्तिनापुरिये
जिनके लिए कविता मशाल नहीं अरहर की दाल है
यमुना पार करने को बकरे की खाल है
वे नहीं जानते रवाँडा की दहशत से निकलकर आदमी
जब कविता के पास जाएगा
वह पंचनामा काटकर
आज़ादी के ज़श्न की तारीख निश्चित कर देगी।