भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम जगे ऐसे / लाखन सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(ऋषिबोध दिवस पर)

तुम जगे ऐसे कि फिर सोये नहीं पल भर,
प्रात लाया रात भर का जागरण ऋषि वर,
प्रात, जिसमें मंत्र ही हों, नव प्रभाती स्वर,
प्रात, जिसमें यज्ञ से महके अवनि-अम्बर।

प्रात जिसमें साम-गायक, गा रहा सस्वर,
ले चलो तम से मुझे, प्रभु! ज्योति के पथ पर,
मर्त्य पा जाये, भटकता फिर अमृत का वर,
प्रात जिसमें वेद-रवि की रश्मियां भास्वर।

प्रात, जिसमें खिल सकंे, हर प्राण के शतदल,
प्रात, जिसमें मिल सके, हर सांस को सम्बल,
प्रात, जिसमें हँस रहा हो, लोक का मंगल,
प्रात, जिसमें प्राप्त हो, हर आत्मा को बल।

प्रात, जिसमें मातु-पितु फिर गीर्वाणी में,
गीत गाकर शिशु जगायें, प्रीति-वाणी में,
प्रात, जिसकी साँझ हो, गो धूलि की बेला,
हर गली में हो पुलकता, धेनु का मेला।

धन्य हो गुजरात, तुम हो धन्य टंकारा,
प्रात का सन्देश काली रात के द्वारा,
आज की शिव-रात्रि, फिर सन्देश लायी है,
और ऐसी रात को शत-शत बधाई है।

हर मनुज बोले, यही वर माँगता हूँ मैं,
आ गयी शिव-रात्रि तो, लो जागता हूँ मैं,
शक्ति दो प्रभुवर, कलुष सब त्यागता हूँ मैं,
हर शिवाले से कहे तम, भागता हूँ मैं।

हर जनमती, साँस बोले, एक ही वर दो,
यदि दया कर दो, दयानंद-चेतना भर दो,
सत्य का दीपक लिये, स्वर-आरती गूँजे,
देवता जीवित, जगत के आदमी पूजे।

कामना जागे, किसी में तो यही जागे,
माँगना चाहे मनुज तो बस यही माँगे,
कोख दो तो मूलशंकर, मातु जैसी दो,
जन्म दो तो पुण्य भू गुजरात जैसी दो,

प्रात दो, ऋषि-बोध के उस प्रात जैसी दो।
रात दो तो फिर उसी शिव रात जैसी दो।