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तुम जो थे मिहरबाँ तो हर इक रंग की मुझसे बेकस पे कुर्बान थी महफ़िलें / ज़ाहिद अबरोल

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तुम जो थे मिहरबां तो हर इक रंग की, मुझ से बेकस पे क़ुर्बान थीं महफ़िलें
तुम जुदा जब हुए तो मिरे वास्ते, कितनी बेरंग बेजान थीं महफ़िलें

आज उस बेज़बां को यह ठुकरा गईं, कल तलक जिसके दम से थीं गर्म-ओ-जवां
जिसने बरसों सजाया संवारा इन्हें, जिसकी जान और ईमान थीं महफ़िलें

तेरे ग़म में तो हम से यही हो सका, जाम की महफ़िलों में ही खोए रहे
तेरे जैसी ही थीं वो हसीं और जवां, हां, मगर कुछ परेशान थीं महफ़िलें

इन में खिलते रहे आरज़ू के कंवल, और इन्हीं में सजी आरज़ू की चिता
सोचता हूं कि रंगीन गुलशन थीं वो, या कि पुरहौल शमशान थीं महफ़िलें

मुझको तन्हाइयों ने है पाला हुआ, फिर भी मुझको बुलाती रहीं उम्र भर
मुझ को साया भी अपना गिरांबार है, इस हक़ीक़त से अनजान थीं महफ़िलें

कौन सी सोच में ग़र्क़ “ज़ाहिद” है तू, ग़म की तन्हाइयों में सुकूं ढूंढ ले
क्या यह कम है कि इस जिंन्दगी में तिरी, चंद लम्हों की मेहमान थीं महफ़िलें

शब्दार्थ
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