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तुम जो पल को ठहर जाओ तो ये लम्हें भी / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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तुम जो पल को ठहर जाओ तो ये लम्हें भी
आनेवाले लम्हों की अमानत बन् जायेँ
तुम जो ठहर जाओ तो ये रात, महताब
ये सब्ज़ा, ये गुलाब और हम दोनों के ख़्वाब
सब के सब ऐसे मुबहम हों कि हक़ीक़त हो जायेँ
तुम ठहर जाओ कि उनवान की तफ़सीर हो तुम
तुम से तल्ख़ी-ए-औक़ात का मौसम बदले
रात तो क्या बदलेगी, हालत तो क्या बदलेंगे
तुम जो ठहर जाओ तो मेरी ज़ात का मौसम बदले
महार्बाँ हो के न ठहरो तो फिर यूँ ठहरो
जैसे पल भर को कोई ख़्वाब-ए-तमन्ना ठहरे
जैसे दरवेश-ए-मदा-नोश के प्याले में कभी
एक दो पल के लिये तल्ख़ी-ए-दुनिया ठहरे
ठहर जाओ के मदारत मैखाने से
चलते चलते कोई एक-आध सुबू हो जाये
इस से पहले के कोई लम्हा आइन्दा क तीर
इस तरह आये के पेवस्त-ए-गुलू हो जाये