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तुम लौटोगे एक बार / शुभा द्विवेदी

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कल रात से दबा हे कुछ अवचेतन में
नहीं समझ पा रही हूँ कि क्या है
क्यों है इतनी घुटन
चेतन करना चाहती हूँ हर शब्द
बेचैनी बढ़ती जा रही है
देख रही हूँ घर का आंगन सूना पड़ा है
आम्र पलव्व का बंदनवार जो द्वारे टंगा है
बाट जोहते जोहते सूखने लगा है
टकटकी लगी है, आंखों की, कि तुम आओगे
पिछली बार जब इसी दरवाजे से तुम जा रहे थे
देखा था अचानक पीछे मुड़ के
दिया था दिलासा कि अबकी होली पर
खूब गुलाल लगाओगे गुलाबी वाला
जानते थे तुम कि मुझे गुलाबी रंग कितना पसंद है
कितना सुखद होता है तुम्हारे प्रेम में गुलाबी हो जाना मेरा
बसंत बीत चुका है, चौराहों पर होली रख दी गयी है
नुक्कड़ वाली दुकान पर गुलाल मिलने लगा है
तुम्हारी यादों का गुलाल लगा रही हूँ
ओढ़नी ओढ़ ली है तुम्हारी चटख बातों की
जानती हूँ तुम सीमाओं के प्रहरी हो
कहा था तुमने कि जब तक सीमायें सुरक्षित है
सभी घरों की दहलीज सुरक्षित है
लड़ रहे हो तुम वहां
लड़ रही हूँ मैं यहाँ स्वयं के विश्वास से,
विश्वास है की तुम लौटोगे एक बार
इस घर आँगन के लिए
आने वाले फागुन के लिए I