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तुम ही, रूकी रहोगी कब तक / कुमार मुकुल

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पिंडलियों से अठखेलती
मृदु जलधारा से
सुकोमल भावनाओं को खींच
ठोस दीवारों के साये में
लौटना कौन चाहेगा

भर आंख देखने को
क्या रुकी रहेगी ओस
दूब की नोकों पर

उम्र के परों को कतरती
तुम ही
रुकी रहोगी कब तक।​​