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तृतीय सोपान/ देवाधिदेव / जनार्दन राय

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मूर्त्तिमान विग्रह विनोद के शंकर बने विवाह में,
दुलहे का तज वेष लीन थे अपने सहज शृंगार में।
भूतनाथ पर पाणि-ग्रहण का भले नहीं प्रभाव था,
किन्तु गणों पर चिरानन्द का व्याप्त सहज सद्भाव था॥
शिव अपना शृंगार पुरातन छोड़ नहीं सकते थे,
शिव-गण भी इस भाव-जगत से दूर न हट सकते थे।
निज समाज का अपना सा ही वाहन-वेष निरख कर,

बिहँस रहे थे भूतेश्वर अपने स्वरूप में छककर।
थे मुख हीन विपुल मुख वाले विनुपद बहुपद वाले
विपुलनयन कोई नयन विहीना पुष्ट-क्षीण तन वाले।
भूषण था कपाल का उनका रक्तमयी थी काया,
क्षीण पीन तन चाल निराली अद्भुत उनकी माया।
गर्दभ, स्वान, शृंगाल और शूकर मुखवाले अगणित गण,
भूत, पिशाच जोगिन, प्रेतों का था जमात हर्षित मन।
ऐसे भूतों के समूह कर नृत्य गीत गाते थे,
लगते थे विचित्र, बातें अटपट करते जाते थे॥

योणि निकृष्ट प्रेत की
जनता अब भी मान रही है,
गया श्राद्ध औ पिण्ड दान
को साधन जान रही है॥

कर सकते हैं योणि-मुक्त
वे क्रिया यही अपनाकर।
नर करत हैं मुक्त स्वयं को
प्रेत-योणि दफना कर॥

पर शिव-गण को परिवर्त्तन
यह कभी नहीं भाता था।
शास्वत था शृंगार भाव
यह मन में बस जाता था॥

शिव के मौर नहीं मणियों के
नहीं बने आकर्षक।
सर्पों के थे मौर वही,
आभूषण थे हिय-हर्षक॥

सृजन सर्प भय कर करता था,
औरों की आँखों में।
हर्षोल्लास मगन गति भरते,
शिव-गण उर पाँखों में॥

था अवसर मंगल का लेकिन
निज आशृत को छोड़।
निज करुणा प्रतिकूल नहीं,
कुछ शिव कर सकते जोर॥

शम्भू का शृंगार शिवगण,
कर रहे सानन्द थे।
जटा मुकुट पर मौर अहि के
दे रहे आनन्द थे॥

कुण्डल बने थे व्याल के,
कंकन उन्हीं के थे बने।
केहरि के ही छाल-पट थे,
भस्म मंे खुद थे सने॥

चन्द्र राजित था ललाट,
विराजती सिर गंग थी।
सर्प सज्जित तीन आँखें,
शोभती निर्भंग थी॥

उर पर नर-सिर माल विराजित,
कण्ठ गरल शासित था।
अशिव वेष्ज्ञ में कृपा धाम,
शिव का स्वरूप ज्ञापित था॥

हाथों में लेकर त्रिशूल,
डमरू भी रखकर मग में।
बसहा पर चढ़कर शंकर
जाते प्रसन्न हिय-मग में॥

दुलहा था बड़ा बेजोड़ सारे विश्व भर में।
ललनायें हंसी थी देखकर अपनी नजर में॥
शिव को देख कर हंसती रही थी देव - बाला।
नहीं पैदा हुई दुलहिन जो डाले गले माला॥

सुकुमारी उमा हित बर बड़ा था अट पटा सा।
लगता था किसी ने ला दिया बस झट पटा सा॥
जो फल लगता बबूरहिं लग रहा है कल्प तरु में।
लता कोमल उमा सी क्या बढ़ेगी भूमि मरू में॥

परिणय यह समझना था कठिन सामान्य जनहित।
मैना देव - कन्या ने दिया मन्तव्य नर हित॥
गणित झूठा बना जाता रहा था वृक्ष-फल का।
कंटक डालियों के बीच खिला-सुमन-दल का॥
विधि की बुद्धि ही लगती विचित्र मनुष्य मन को।
कुहरा अति विशाल लगा लता के क्षीण तन को॥
धरा से उठ सके यह वृक्ष कब सम्भव हुआ यह।
बटोही को मिले छाया नहीं सम्भव हुआ यह॥
आम्र का वृक्ष है कितना बड़ा शाखा घनी है।
उसी में लटकता फल जो बहुत रस का धनी है॥
वही-गिरता पथिक के पास तो वह दाद देता।
विधाता है चतुर वह खुशी से रस स्वाद लेता॥

आज का ताकिक मन मानता उपहास इसको।
टपकना आम्रफल जँचता नहीं है उचित जिसको॥
गिरेगा फल धरा की गोद में लेटे पथिक पर।
तो इस अंजाम का कैसा असर होगा मनुज पर॥
यदि सम्भव हुआ होता नहीं तब लेटता जन,।
जगा रहता न सुख पाता ग्रसित चिन्ता सतत मन॥
सृष्टि से अनगिनत हैं प्रश्न जो पाते नहीं हल।
आस्तिक नास्तिकता का रहा है प्राप्त कर फल॥
नहीं है जान सकता नर कभी भगवंत गति को,
अद्भुत है बड़ी सन्तोष पाता माप मति को।
सृष्टि की वस्तु को स्वीकार करता जो यथावत,
चतुर केवल वही नर है जो रहता है तथावत।
यदि स्वीकारता उसको नहीं तो दुख मिलेगा,
शंका की धरा पर सुख-सुमन तब नहिं खिलेगा।
इसी सिद्धान्त पर गिरिजा सदा चलती रही थी,
मैना की व्यथा हलकी सदा करती रही थी।
”माता लो कलंक नहीं“ तजो करुणा बचा अवसर नहीं है,
दुख-सुख जो लिखा है भाग्य में स्वीकारना डरना नहीं है।
इस रूप को ही ग्रहण हित शिव भी तो प्रेरित कर रहे थे,
शिव गण भी अमित सन्तुष्ट हो निजयोनि में जीते रहे थे।
आनन्दी स्वरूप अनुरूप था शृंगार दुलहा का निराला,
अनोखा रूप था अद्भुत था वाहन बैल वाला।
हरिहर एक तात्विक दृष्टि से हैं मित्र भी तो परम प्यारा,
ढूंढ़ना भिन्नता में एकता है काम भी तो कठिन न्यारा।
प्रतिद्वन्द्वी सदा दीनों रहे रख भिन्न जीवन का भी दर्शन,
न लीला रूप में समता सतत थे दूर दोनों के समर्पन।
मिलते हैं प्रमाण अनेक सुन्दर उपाख्यानों में निरन्तर,
लड़े थे विष्णु-शिव फिर भी कभी रक्खे न अन्तर।
रहते विष्णु थे सब दिन सुरों के पक्षधर बन,
पूजते अशुर थे शिव को वचन से, कर्म से, मन।
असुर, नाग, सुर, नर, मुनि श्रेष्ठ परम सब देव,
शिव के पद पंकज सभी रहे प्रेम से सेव।
विष्णु सदा मानते देव का उचित समर्पण।
लोक हित संभव था यदि वे करते अर्पण॥

देवत्व पुण्य का ही तो
परिणाम हुआ करता है।
देव विजय से लोगों में
सत्कर्म भाव भरता है।’

विष्णु-तर्क यह शंकर के
मन में न कभी भाता था।
देव-दनुज में उनको कोई
अन्तर नहीं आता था॥

दोनों को था भोग इस्ट,
वे तो बस यही समझते।
भोगों में आसक्त उभय
रण को थे उचित समझते।

भोग प्राप्ति हित देव सदा
सत्कर्म किया करते थे।
पाप-पुण्य का आश्रय दानव
सदा लिया करते थे।

समय-समय पर असद सुरों से
त्याज्य नहीं रहते थे।
शंकर दोनों की इच्छा
इसलिए पूर्ण करते थे।

असुरों के विरुद्ध सुरका भी
पक्ष लिया करते थे।
कभी चुनौती पद्मा-पति को
राक्षस हित देते थे॥

हार जीत की भूतनाथ को
चिन्ता नहीं सताती।
निष्काम कर्म की भव्य मूर्ति
केवल उनकी थी भाती।

यदा कदा थे विष्णु,
पराजय को भी उचित समझते।
संघर्ष समय एकत्व भाव की
चर्या दोनों करते॥

मैत्री की थी पुष्टि इसी से
जब तक होती रहती।
दोनों की बात कहीं सतत,
जीवों हित चलती रहती॥

मांगलिक शिव के विवाह की
वेला जब आयी थी।
उल्लास पूर्ण विष्णु ने
अपनी भाव-भूमि पायी थी॥

उमा-विवाह पूर्व
मन-रंजक पक्ष एक आया था।
दूरदर्शी सप्तर्षि वृन्द
प्रस्ताव यही लाया था

शिव में है पात्रता नहीं,
बस उमा विष्णु को ही अपना ले।
सम्पन्न विष्णु से पाणिग्रहण
गिरिजा दिल से करवा ले॥