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तेरा ही आस्ताना चाहती हूँ / अलका मिश्रा

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तेरा ही आस्ताना चाहती हूँ
यहीं धूनी रमाना चाहती हूँ

है मेरी रूह इक गहरा समंदर
सो ख़ुद में डूब जाना चाहती हूँ

मेरी ख़ाना-बदोशी थक चुकी है
कहीं कोई ठिकाना चाहती हूँ

है तुझ से दूर जाने का ये मक़सद
तुझे नज़दीक़ लाना चाहती हूँ

जो हाथों से फ़िसलते जा रहे हैं
मैं वो लम्हे बचाना चाहती हूँ

नदी मैं हूँ तू मेरा है समंदर
बस अब तुझ में समाना चाहती हूँ

उजालों के लिए ख़ुद को जलाकर
उजालों में नहाना चाहती हूँ