भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तेरी दावत में गर खाना नहीं था / राकेश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तेरी दावत में गर खाना नहीं था
तुझे तंबू भी लगवाना नहीं था

मेरा कुरता पुराना हो गया है
मुझे महफ़िल में यूं आना नहीं था

इमारत में लगा लेता उसे मैं
मुझे पत्थर से टकराना नहीं था

ये मेरा था सफ़र, मैंने चुना था
मुझे काँटों से घबराना नहीं था

समझ लेता मैं ख़ुद ही बात उसकी
मुझे उसको तो समझाना नहीं था

तुझे राजा बना देते कभी का
मगर अफ़सोस! तू काना नहीं था

छुपाते हम कहाँ पर आँसुओं को
वहाँ कोई भी तहख़ाना नहीं था

मुहब्बत तो इबादत थी किसी दिन
फ़क़त जी का ही बहलाना नहीं था

जहाँ पर युद्ध में शामिल थे सारे
वहाँ तुमको भी घबराना नहीं था