भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तोंहीं बतलाबऽ / कस्तूरी झा ‘कोकिल’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लोतपात, बारी झारी हे!
सब मुरझाबै छै,
अपराजिता, ओड़हुल, कनेर
हे! मुँह लटकाबै छै।
चीरामीरा, अमरूद, कटहल
खड़े-खड़े कहरै छै,
हमरो मोन बारी गेला सें हरदम हहरै छै!
आम, करौटन, गाछसुपारी कुछ नैं बोलै छै
बेला, गुलाब, नेमो गाछीं तेऽ
आँख नै खोलै छै।
की कहियै एकरा सबकेऽ हम तोहीं बतलाबऽ
औल बौल सबके मोन होय छै
तोंही बहलाबऽ।

-अंगिका लोक/जनवरी-सितम्बर, 2006