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तोड़ दूँगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान / अज्ञेय

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तोड़ दूँगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान!
तुम हँसो, कह दो कि अब उत्संग वर्जित है-
छोड़ दूँ कैसे भला मैं जो अभीप्सित है?
कोषवत्ï, सिमटी रहे यह चाहती नारी-
खोल देने, लूटने का पुरुष अधिकारी!
ओस चाहे, वह रहे, रवि-ताप ही चुक जाय,
फूल चाहे, लख उसे झंझा स्तिमित रुक जाय!
कूल की सिकता कहे बढ़ती लहर थम जाय,
पुरुष स्त्री की तर्जनी से पिघल कर नम जाय!
शक्ति का सहवास खो कर पुरुष मिट्टी है-
पूछता है पुरुष पर, वह शक्ति किस की है?
शक्ति के बिन व्यर्थ मेरा दृप्त जीवन-यान
क्यों न उस को बाँधने में तब लगूँ तन-प्राण?
बद्ध है मम कामना में क्षणिक तेरा हास,
मेघ-उर में ही बुझेगा दामिनी का लास!
दूर रहने की हृदय में ठानती क्या हो!
तुम पुरुष की वासना को जानती क्या हो!
मत हँसो, नारी, मुझे अपना वशीकृत जान-
तोड़ दूँगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान!

लाहौर, 17 सितम्बर, 1936