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त्रिलोचन: एक बेढब संवाद / प्रकाश मनु

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अजी त्रिलोचन जी
आप तो आदमी ही है कुछ विचित्र
अजीब-बड़े ही अजीब-
और प्रगतिशील तो कहीं से भी नहीं...
मैं फिर कहता हूं साफ-साफ- प्रगतिशील तो
कहीं से भी नहीं-आई स्वेयर...!

सचमुच बड़े अजीबग हैं आप
बहुत खंगालों तो भी झलकता नहीं कोई प्रोग्रेसिव तेवर...झल्लाई मुद्रा...
नहीं आग, अंगार विस्फोट कोई धमाका फां-फूं
नहीं मार्क्स ऐंजल्स समेत बड़े-बड़े नाम
कोटेशन उपजाते त्रास
...बस यूं कि धीमी-धीमी धीमी-धीमी-सी कुछ बातें
कभी-कभी जोश (हा-हा-कार)
जैसे जड़ें
धंसती हैं चटियल जमीन में
 कि जैसे जड़ों में
धंसता है पानी...

पूछता हूं उछलकमर उन दिनों
का खाका
जब कई-कई दिनों तक चला फाका-
वह दौर कि भीख मांगते त्रिलोचन
को देखा जिसने कल...फटा पजामा
कुरता तार-तार !

ऐसे बेजार वक्त के बारे में पूछता हूं मैं
- ‘कैसे थे वे गर्दिश के दिन, बताइए न जरा !’
और लिजिए आप हैं कि एक मामूली से शब्द के
अर्थ की खींचतान में ही उलझ गए
और खींचते हैं तो
खींऽऽचऽऽ से ऽऽ ही चले जाते हैं
कि उसकी अजीब लय-लान में
कभी कोई पेड़ कभी कोई बिरवा कभी
नागरी प्रचारिणी का प्रांगण कभी आमड़े का बौर
सऽऽब समा जाते हैं ...

यह क्या हुआ आपको कि आप तो पटरी
से ही उतरकर
चल दिए त्रिलोचन जी
(यूं भी चलते हैं आप जरा तेज-तेज !)
रूकिए, रूकिए तो जरा...
ऐसे भला कैसे आएगा प्रगतिशील कवियों की
‘नई लिस्ट में नाम आपका...??

सुनिए।
सुनिए तो जरा-
देखिए, मेरी मुश्किल भी अजीब है...
मैं तो आया हूं लाल तमतमाया चेहरा देखने
जनपद के कवि का

बड़े-बड़े बेडौल दुख के दाग
सोचता था आप बड़ी शिकायतें करेंगे जमाने की
जरा सी फूं-फां समकालीनों पर
और आप है कि मुसकराते हैं, बस मुसकराए जाते हैं

बेशक
आपकी वह खुली हुई
सादा आसमानों की सी हंसी लाजवाब।
मगर तेवर...
तेवर वहां कहां ?

जो हम छुटभैऽऽयोंऽ को भाता है
कोई ढाई-तीन घंटे की मशक्कत के बाद
लौटा तो देखता हूं-
मुसकरा रहे हैं हरिपाल और गुस्सा
मेरी नाक परः

(हद्द है याद...गजब/यह त्रिलोचन नाम का शख्स भी,
ये आदमी तो कहीं काबू में ही नहीं आता...!
नहीं खुश होता सुनकर प्रशंसा
नहीं निंदा से नाराज
जैसे-जैसे कहो, मान जाता है आसानी से
आपकी बात
और मुसकराता है...यूं ही खामखा !)
कहो हरिपाल, कहो-
क्या माजरा है ?
कहो त्रिलोचन के चहेते दोस्त, चित्रकार !

चलते हुए हरिपाल के कंधे पर रख देता हूं सिर
आंखों में आसमान...
कि यक ब यक
उस साफ लम्बी स्लेट पर खिंच आते हैं
मेरे ही कहे हुए शब्द
(उछलते बौने !)

शब्दों पर त्रिलोचन का हंसना
हंसते हुए से त्रिलोचन के जवाब
...बड़ी उस्तादी
बड़े गंभीर उस्तादाना वार
सरल अपनाव...
(कि आह ! मेरा गर्व
रास्ते की धूल में जा गिरता है)
....................
....................
-कहता नहीं अब मैं पहले की तरह
कि वह कौन था त्रिलोचन लिखीं जिसने
कविताएं प्रगतिशील
जनता के निर्धूम दुखों की
-जो था
जो है जनपद का कवि...!

वक्त की राख के नीचे दबी है
जो आंच
बरसों से यूं ही सुलगती
(बहुत-बहुत मद्धिम फिर भी तेज !)
हरिपाल के साथ बैठे-बैठे टटोलता
रहा मैं

डूबती सांऽऽझ तलक...