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थक गया सुन सुन तेरी ऐसा था वो वैसा न था /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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थक गया सुन सुन तेरी ऐसा था वो वैसा न था
कुछ तो अपनी भी बता कैसा था तू कैसा न था
उस शहर में रह भी लेगा पर समझ उसका मिज़ाज
मैं न रह पाया वहाँ जैसे को मैं तैसा न था
मिल रही थी इक दफ़ा केवल अठन्नी में ख़ुशी
हाथ डाला जेब में तो एक भी पैसा न था
कुछ तो मेरा मूड भी उखड़ा हुआ था और फिर
कुछ तेरा लहजा भी उस दिन रोज़ के जैसा न था
चाहने वाले तो पहले भी मुझे लाखों मिले
हाँ मगर उनमें से कोई भी तेरे जैसा न था
ठीक है मैं मानता हूँ मैं ग़लत हूँ तू सही
बस भी कर अब यार ये ‘ऐसा न था, वैसा न था
कोई क्या जाने कि क्या हालात आये सामने
सब ये कहते हैं ‘अकेला’ तो कभी ऐसा न था