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दंगा कर्फ्यू और भूख / आरती तिवारी

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यह एक गुमसुम उदास शाम थी
छुई मिट्टी से लिपे चूल्हे में,
सूखी लकड़ियाँ सुलग रही थीं
काँसे की एकमात्र थाली में
ताज़े सने आटे के साथ
सने थे दो चार तितर-बितर सपने
और पतीली में दाल के साथ
उबल रहा था एक सैलाब

शहर में भड़के दंगे के बाद
झुलस गया चूल्हा भी नही जला दो दिन तक
जैस दंगा भूख को खा चुका था
सूरज चाँद तारे सब लापता हो गए थे
दिन रात जैसे एक दूसरे में गड्डम गड्ड

आज तीसरे दिन शहर नेआँखें खोली
एक सहमी सी सुबह ठिठकती हुई
दोपहर में प्रवेश करती
खींच लाई लोगों को
नून तेल लकड़ी लेने बाज़ार में
और वे बचे खुचे पैसे
नुचे पिटे चेहरे लिए
भिड़ा रहे थे दो जून रोटी की जुगत

भूख नही जानती दंगा
ईमान राष्ट्र और व्यवस्था
भूख सिर्फ भूख होती है
अंतड़ियों की ऐंठन
न किसी गलत का विरोध करने की कुव्वत रखती है
न किसी सच की पक्षधरता
वह बस भूख होती है

प्यास की नदी की बाढ़
बहा ले जाती है सोने से सपने
भूख का दावानल राख कर देता है
सिद्धांतों के दस्तावेज़

भूख की जीत अन्त में तय है
किसी भी परिस्थिति से परे
भूख के यज्ञ में
निवालों की पूर्णाहुति से
पूरा होता है जीवन

दो जोड़ी आँखें भविष्य की
माँ के आँचल में दुबकी
चूल्हे पे चढ़ी दाल के सीज़ने के इंतज़ार में
बावली सी हुए जा रही हैं

सृष्टि की सबसे सौंधी गन्ध
फ़ैल गई थी
पतीली से निकल कर शहर के अंतिम छोर तक
फिर से बच जाने और जीने की ओर एक कदम बढ़ाती
एक सुनहरी भोर की ओर