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दरवाजे - 3 / राजेन्द्र उपाध्याय

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दरवाजे होते थे गाँव में
आसानी से खुल जाते थे
एक पतली-सी सांकल से बंधे होते थे
कोई बाहरवाला भी उसे खोलकर
भीतर आ सकता था।

शहर में होते हैं लोहे के दरवाजे
जिनके सामने मैं हमेशा लाचार खड़ा रहतो हूँ
खुलेंगे भी कि नहीं
एक बार एक दरवाजे के सामने मैं रातभर खड़ा रहा
वह सुबह भी नहीं खुला।

शहर में होते हैं ऐसे दरवाजे
कि पता भी नहीं चलता कि बंद हैं या खुले हैं
उनके भीतर एक हंसता खेलता परिवार इस तरह बंद
रहता है गोया कोई न हो
और जिस घर में कोई नहीं होता
वहाँ लगता है भीतर चूल्हा जल रहा है
और रोटी पक रही है ...

शहर का अपना एक दरवाज़ा भी होता है
जैसे दिल्ली दरवाजा
मगर ऋतुएँ हर दरवाजे को मानने से इंकार करती हैं
हवा भड़भड़ाती है ज़ोर से दरवाजे
लाख बंद करो फिर भी खोल देती है बारिश
याद दिलाती हुई
देखो पिछली बार भी ऐसी ही आई थी
और अगले बरस भी आऊंगी।