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दर्दे-दिल हमने दिल में ही दबाये रक्खा है / कबीर शुक्ला

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दर्दे-दिल हमने दिल में ही छिपाये रक्खा है।
झूठी ही सही लबों पर हँसी बनाये रक्खा है।

जबाँ खुले और जमाने में सैलाब आ जाये,
होठों को भींच सिसकियाँ दबाये रक्खा है।

मैं और ये आँधियाँ दोनों ही जिद पर हैं अड़े,
हथेलियाँ जली पर चराग जलाये रक्खा है।

नींद की आगोश में रात अँगड़ाई लेती रही,
मैने चाँद की चाँदनी को जगाये रक्खा है।

किसी को देख दिल में कोई चाहत ना जगे,
मैने ख़्वाहिशो-अरमान भी सुलाये रक्खा है।

मैं नहीं हूँ मालिक! तेरी रहमतों के काबिल,
दुआओं ने फिर भी उमीद लगाये रक्खा है।
 
जाने कब क़फ़स से ये परिंदा आज़ाद होगा,
पा में जो काकुले–गेती उलझाये रक्खा है।