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दश्त-ए-तनहाई / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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दश्त-ए-तन्हाई<ref>वीरान जंगल में</ref> में ऐ जान-ए-जहाँ<ref>विश्वप्रिया</ref> लरज़ा<ref>कम्पित हो रहे हैं</ref> हैं
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब<ref>मरीचिका</ref>
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले<ref>घास और मिट्टी के कणों के नीचे</ref>
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन<ref>चमेली</ref> और गुलाब

उठ रही है कहीं क़ुर्बत<ref>समीप</ref> से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम-मद्धम
दूर् उफ़क़<ref>आकाश</ref> पर चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम<ref>ओस</ref>

उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार<ref>गाल</ref> पे इस वक़्त तेरी याद् ने हाथ
यूँ गुमाँ<ref>शक</ref> होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात

शब्दार्थ
<references/>