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दसम कथा (रुक्मनी का ब्याह) / नज़ीर अकबराबादी

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ऐ दोस्तो! यह हाल सुनो ध्यान रख ज़रा।
और हर तरफ़ से ध्यान के तईं टुक इधर को ला॥
चर्चा है इसका वास्ते सबके तईं भला।
कहता हूं मैं यह अगले ज़माने का माजरा<ref>कथा, कहानी, किस्सा</ref>
है नाम इस बयान का यारो दसम कथा॥1॥

सुकदेव ने कथा यह पहले परीक्षत से है कही।
उसने सुनी तो उसका हुआ दिल बहुत खु़शी॥
फिर भीकम एक राजा मन्दिर की थी मन्दिरी।
थे पांच बेटे उसके बहुत सुन्दर और बली॥
घर बार उसका दौलतोहश्मत<ref>धन-सम्मान</ref> से भर रहा॥2॥

बेटा बड़ा था सो उसका रुकम था नाम।
और रुक्मनी है बेटी बहुत खू़ब ख़राम॥
रूप और सरूप उसमें थे सर पांव से तमाम।
सखियों सहेलियों में वह रहती थीं खु़श ख़राम॥
गहना लिबास तन पै बहुत था झमक रहा॥3॥

नारद मुनि इक दिन आये जहां पर थी रुक्मनी।
और उससे बात उन्होंने वह श्री किशन की कही॥
लीला सुनाई वह सभी रूप और सरूप की।
जब रुक्मनी ने खू़बी वह श्रीकिशन की सुनी॥
सुनते ही उनकी हो गई जी जान से फ़िदा॥4॥

ठहरी यह रुक्मनी के वहीं दिल में आन कर।
बरनी जभी मैं जाऊं मिले जब वह मुझको बर॥
दिन रात ध्यान अपना लगी रखने वह उधर।
आंखों को अपनी करने लगी आंसुओं से तर॥
बेचैन दिल में रहने लगी सब से ही ख़फ़ा॥5॥

छुपती नहीं छुपाये से सूरत जो चाह की।
सखियां सहेलियां जो थीं और लड़कियां सभी॥
देखी जो रुक्मनी की उन्होंने यह बेकली।
जाना कि रुक्मनी का लगा साथ हरि के जी॥
कहने लगीं उन्हीं की वह बातें बना बना॥6॥

बोलीं वह सब कृश्न तो अवतार हैं बड़े।
जो खू़बियां हैं उनमें कहां तक कोई कहे॥
रूप और सरूप उनके की क्या क्या सिफ़त<ref>प्रशंसा</ref> करे।
लीला हुई है उनसे जो हों कब वह और से॥
मां देवकी है उनकी वह वसुदेव जी पिता॥7॥

जन्मे वह मधुपुरी में तो जब आधी रात थी।
बसुदेव उनको ले चले गोकुल उसी घड़ी॥
जमुना ने उनके छू के चरन जल्द राह दी।
पहुंचे जो घर में नंद जसोदा के कान्ह जी॥
सब नेगियों ने नेग बधाई का वां लिया॥8॥

बसुदेव जी ने भेजा गरग पण्डिता को वां।
जो नाम उनका जाके वहां पर करे बयां॥
सुभ नाम जो कि होवे बयां कर उसे अयां।
गोकुल में आ मिसर ने बहुत होके शादमां<ref>प्रसन्न</ref>॥
उनका श्रीकृष्न नाम बहुत सोध कर रखा॥9॥

थे बालपन में झूलते हर दम कृष्ण जी।
जब कंस ने यह पूतना भेजी कि लेवे जी॥
उसने जो छाती ज़हर भरी उनके मुंह में दी।
मुंह लगते ही उन्होंने वह जान उसकी खेंच ली॥
उसके पिरान कढ़ गए और कुछ न बस चला॥10॥

कागासुर आया दृष्ट लिया उसको मार भी।
फिर तृनावर्त्त की भी हवा दूर की सभी॥
सकटासुर आया उसकी भी गाड़ी उलट ही दी।
आया सिरीधर उसकी भी मट्टी ख़राब की॥
जितने वह दुष्ट आये सभों को उलट दिया॥11॥

फिर पांव चलने लगे जो धरती पै नंदलाल।
आये वह जिनकी गोद में उनको किया निहाल॥
स्याने हुए तो साथ लिये अपने ग्वाल बाल।
मुरली की धुन सुनाके किया सबका जी निहाल॥
गौएं चराई बन में वह बंसी बजा-बजा॥12॥

धमका के ग्वालिनों से लिये दूध और दही।
खाने खिलाए उनको जो थे साथ में सभी॥
जब ग्वालिनों ने आके जसोदा से यह कही।
झिड़का उन्होंने सांटी उठाकर जो उस घड़ी॥
त्रिलोक खोल मुंह उन्हें हरि ने दिखा दिया॥13॥

जमला व अर्जुन और वह दो देवता जो थे।
दो ताड़ बन गए थे किसी के सराप से॥
मुद्दत तलक वह बन में यूंही थे खड़े हुए।
लीला से अपनी कृश्न ने उस बन में आन के॥
वैसा ही देवता उन्हें एक पल में कर दिया॥14॥

राछस बहुत जो किशन पै आने लगे वहां।
नंद और जसोदा की लगी देख उनसे जाने जां॥
लेकर कुटुम सब अपना जो वे खु़र्द<ref>छोटे</ref> और कलां<ref>बड़े</ref>।
आकर वह वृन्दावन के लगे रहने दरमियां॥
गोकुल का बास सबने उसी दिन से फिर तजा॥15॥

ले ग्वाल बाल जाने लगे श्याम मन हरन।
गौऐं लगे चराने जहां है यह गोवरधन॥
वां भी बधासुर आया बकासुर भी बगुला बन।
मारा और उसकी चोंच को चीरा समेत तन॥
आया अधासुर उसके भी सर को उड़ा दिया॥16॥

दिखलाई अपनी हरि ने जो लीला वह बछ हरन।
देख उसको सबने चूम लिये कृश्न के चरन॥
ढिंग राक्षस आया फिर जो बनाकर वह मक्रोफ़न<ref>धोखा और चतुराई</ref>।
मारा उसे भी हरि ने जहां है यह ताल बन॥
काली को दह में नाथ किया नीर निरमला॥17॥

गौऐं खड़े चराते थे बन में जो श्याम जी।
उस बन में एक दिन जूं ही आग आन कर लगी॥
सब ग्वाल बाल छक रहे गौऐं खड़ी सभी।
लीला से वां भी हरि ने वह देख उनकी बेबसी॥
उस आग से सभों को लिया आन में बचा॥18॥

फिर की जो लीला चीर हरन हरि ने खू़ब तर।
सुरपति ने फिर वह कोप किया उनपे आन कर॥
पर्वत को वां उठा लिया बंसी ऊपर अधर।
फिर सर्द समय में श्याम ने ली नारियां सुन्दर॥
मुरली बजा के नृत्य किया रास को बना॥19॥

मारा वह सांप पांव पे लिपटा जो नंद के।
लीं गोपियां छुड़ा वहीं फिर शंख चूड़ से॥
हरका सुर और केशी व भौमासुर आ गए।
अपने से मक्र हरि से उन्होंने बहुत किये॥
हरि ने उन्हें भी मार के भू पर दिया गिरा॥20॥

एक रोज़ वृन्दावन से ले आये उन्हें जो वां।
चलने को साथ उनके हटीं सब वह गोपियां॥
जमना में फिर नहाये जो एक रोज़ शादमां<ref>प्रसन्न</ref>।
हरि ने दिखाये वां उन्हें लीला से यह निशां॥
जो हरि ही हरि दिखाई दिये उनको जा बजा॥21॥

जब वृन्दावन में आये तो धोबी को कंस के।
मारा वहीं और उसके लिये चीर जितने थे॥
सूजी से ले लिबास<ref>वस्त्र</ref> दिये फिर बहुत उसे।
चन्दन जो कुब्जा लाई तो खु़श होके श्याम ने॥
सब खो दिया जहां तईं कुबड़ापन उसका था॥22॥

ड्योढ़ी पे आये जब तो वह तोड़ा धनुष के तईं।
रंग भूमि में गिरा दिया परबल को बर जमीं॥
दर्शन दिये वह राजा जो कै़दी थे सहमगी।
फिर कंस के भी केस पकड़ खींच कर वहीं॥
सर उसका एक इशारे में तन से जुदा किया॥23॥

फिर आये वां जहां थे वह बसुदेव देवकी।
चरनों पै सीस रख के बहुत सी असीस ली॥
यह बातें हरि की सुनके वहां रुक्मनी ने भी।
चाहा यही कि देखूं मैं सूरत कृश्न की॥
बेताबोबेक़रार<ref>बेचैन</ref> लगी रहने सुख गवा॥24॥

उसको यह बातें कृश्न की खु़श आई थीं सभी।
सुनती वह साथियों से उन्हीं को घड़ी घड़ी॥
मां बाप रुक्मनी के भी और चारों भाई भी।
बर रुक्मनी के हों वही थे चाहते यही॥
पर रुक्म जो बड़ा था सो पसंद उसको यह न था॥25॥

रखता था नाम उसका तो जदु बंस है जनम।
कांधे पे उसके कामरी रहती है दम ब दम॥
गौवें चराता फिरता है बन बन में रख क़दम।
दौलत में और ज़ात में उससे बड़े हैं हम॥
शिशुपाल चन्देरी का जो बर हो तो है भला॥26॥

यह बातें वां रुकम से जो सुनती थी रुक्मनी।
बेकल बहुत वह होती थी और दिल में कुढ़ती थी॥
जब बेकली बहुत हुई और रह सका न जी।
एक चिट्ठी अपने हाल की हरि के तईं लिखी॥
बाम्हन के हाथ द्वारिका में दी वहीं भिजा॥27॥

बाम्हन जो हरि की ड्योढ़ी पे आ पहुंचा राह से।
देखा तो वहां है चेरी और चाकर बहुत खड़े॥
जाने में थे मन्दिर के जो दरबान रोकते।
सुनकर ख़बर यह हरि ने बुलाया वही उसे॥
परनाम करके ऊंचे मकां पर दिया बिठा॥28॥

बाम्हन की विनती करके लगे कहने किशन जी।
तुमने हमारे हाल पै कृपा बड़ी यह की॥
उसने जबानी<ref>मौखिक</ref> कहके जो अहवाल था सभी।
फिर रुक्मनी की चिट्ठी जो लाया सो हरि को दी॥
हरि ने पढ़ा उसे तो यह अहवाल था लिखा॥29॥

”ऐ ब्रजराज“ “कृष्ण” “मनोहर” मदन गोपाल।
मैं दर्शनों की आपके मुस्ताक़<ref>अभिलाषी</ref> हूं कमाल<ref>अत्याधिक</ref>॥
दिन रात तुमसे मिलने को रहती हूं मैं निढाल।
दर्शन से अपने मुझको भी आकर करो निहाल॥
सब ध्यान में तुम्हारे ही रहता है मन लगा॥30॥

शिशुपाल ब्याहने को मेरे अब तो आता है।
सब राजे और साथ जरासंघ लाता है॥
यह ग़म तो मेरे दिल को निहायत सताता है।
इस अपनी बेबसी पै मुझे रोना आता है॥
तुम हरि हो मेरे मन की करो दूर सब बिथा॥31॥

ऐ किशन जी तुम आओ कि अब वक़्त है यही।
अपने चरन से लाज रखो मेरी इस घड़ी॥
हरि ने वह चिट्ठी पढ़के मंगा रथ वह जगमगी।
होकर सवार जल्द चले वां से किशन जी॥
बाम्हन भी अपने साथ वह रथ में लिया बिठा॥32॥

शिशुपाल इसमें आन के पहुंचा शिताब<ref>शीघ्र</ref> वां।
अगवानी उसकी लेने को भीकम गया वो बाँ॥
बाजे मंदीले घर में लगीं गाने नारियां।
आंखों में रुक्मनी के यह आंसू हुए रवां॥
सुन्दरि का मुंह वह आंसू के बहने से भर गया॥33॥

जो जो वह हरि के आने में वां देर होती थी।
कोठे पर अपने रुक्मनी वां चढ़के रोती थी॥
तकती थी हरि की राह न खाती न सोती थी।
बेकल की तरह फिरती थी और होश खोती थी॥
कुछ रुक्मनी को रोने सिवा बन न आता था॥34॥

कहती थी क्यूं यह कृष्ण मुरारी ने देर की।
मोहन नवल किशोर बिहारी ने देर की॥
ब्रज राज, रूप, मुकुट संवारी ने देर की।
या चाह के असर यह हमारी ने देर की॥
बाम्हन जो मैंने भेजा था वह भी नहीं फिरा॥35॥

इसमें मुकन्दपुर के जो हरि आये अनक़रीब<ref>समीप</ref>।
झलके कलस वह रथ के, हुई रोशनी अजीब॥
खु़श रुक्मनी का जी हुआ जूं गुल से अंदलीब<ref>बुलबुल</ref>।
बोली खुशी हो मन में कि, जागे मेरे नसीब<ref>भाग्य</ref>॥
बाम्हन ने भी वह आने को हरि के दिया सुना॥36॥

बन ठन के जब ख़ुशी से वह पूजा के तईं चली।
साथ उसके नारियां, चलीं गाती बहुत ख़ुशी॥
सुन्दरि की जाती पांव की पायल जो बाजती।
रूप और सरूप उसका बयां क्या करे कोई॥
पहुंची खु़शी से वां जहां थी पूजने की जा॥37॥

जिस जिसको पूजा वां यही उसने किया बयां।
किरपा करो जो मुझको मिलें ब्रज राज यां॥
लेने को दर्सन उसके हुई हूं मैं नीमज़ां<ref>अर्द्धमुई</ref>।
जल्दी मिलाओ तुम जो रहे लाज मेरी यां॥
हर देवता से वह यही करती थी इल्तिजा॥38॥

जब देवी देवता की यह परिक्रमा दे चुकी।
सुन्दरि दुलारी आगे को चल कर ठिठक रही॥
इस वास्ते कहीं मुझे दर्शन दे किशन जी।
तो देख वह सरूप मेरी होवे ज़िन्दगी॥
बच जावे जी यह लाज भी मेरे रहे बजा॥39॥

सुन्दर नवेली रूप का मैं क्या करूं बयां।
मुख वां झमक रहा था कि जूं माह आसमां॥
पोशाक भी बदन पै चमकती थी ज़रफ़िशां<ref>सुनहरी</ref>
सर से पांव से भरी थी वह गहने के दरमियां॥
क्या वस्फ़<ref>प्रशंसा</ref> उसका हो सके जे़बोनिगार<ref>सुन्दरता</ref> का॥

देखा जो मुकन्दपुर के लोगों ने हरि को वां।
सब दर्शन उनके पाके हुए जी में शादमां॥
आपस में सब वह कहते थे नर और नारियां।
बर रुकमनी के यह हों तो हर मन को सुख हो यां॥
हर दम इसी मुराद की मांगें थे सब दुआ॥41॥

भीकम जो हरि के लेने को आया बहुत खु़शी।
दर्शन जो हरि के पाये तो विनती बहुत सी की॥
इतने में रुकमनी जो थी हरि के लिए खड़ी।
दर्शन जो पाये आगया वां उसके जी में जी॥
हरि ने पकड़ के हाथ लिया रथ में वां बिठा॥42॥

शिशुपाल अपने लेके कटक आ गया वहां।
बान उसके हरि ने काट भगाया उसे निदाँ॥
आया रुकम जो बान धनुक लेके और सनां<ref>तीर, बरछा, भाला</ref>।
उसको भी हरि ने बांध लिया काट उसकी बाँ॥
विनती से रुकमनी ने दिया उसका जी छुटा॥43॥

शिशुपाल का भी हरि ने दिया पल में गरब खो।
जो था गुरूर उसका सो सब डाला दम में धो॥
आया रुकम वली जो बहुत करके गरब को।
बालों से उसके हाथ बंधे और रहा वह रो॥
सच कहते हैं कि गरब है, जग में बहुत बुरा॥44॥

जब रुकमनी से कहने लगे हंस के वां यह हरि।
शिशुपाल को गरब ने किया सब में ख़्वारतर<ref>अपमानित</ref>॥
खोया रुकम को और जरासंघ को उधर।
आये थे जिस गरब से वह लड़ने को अब इधर॥
आखि़र उसी गरब ने दिया उनका सर झुका॥45॥

शिशुपाल और रुकम का हुआ जब यह हाल वां।
बलदेव जी ने उनके कटक सब भगाए वां॥
ले रुकमनी को हरि हुए फिर द्वारिका वाँ।
जब आन पहुंचे खु़श हुए सब नर व नारियां॥
देखा जमाल उनका तो पाया बहुत भला॥46॥

फिर देवकी जो आई बहुत होके खु़श इधर।
पानी पिया उन्होंने वहीं हरि पे वार कर॥
सब नारियां भी आन के बैठीं इधर उधर।
जितना सहन था घर का रहा सब वह उनसे भर॥
शादी के बाजे बजने लगे शोरो गुल मचा॥47॥

सब द्वारिका में धूम यह शादी की मच गई।
बाजे, मजीरे तबले दमामें और तुरई॥
दर पर बरातियों की बहुत भीड़ आ लगी।
सोभा से द्वारा पर वह बंधन बार भी बंधी॥
पण्डित बुला सगुन से वह फेरे दिये फिरा॥48॥

बैठे थे द्वारका के वहां, खु़र्द और कबीर<ref>छोटे और बड़े</ref>।
होते थे राग रंग खु़शी थे जवानों पीर<ref>युवक और वृद्ध</ref>॥
सामान थे हज़ारों ही शादी के दिलपज़ीर<ref>मनोरम</ref>।
जो खू़बियां हुई सो वह क्या क्या कहे ”नज़ीर“॥
इस ठाठ से वह ब्याह अ़जब कृष्ण का हुआ॥49॥

शब्दार्थ
<references/>