भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दाँत बजाती आई सरदी / मधुसूदन साहा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किट-किट, किट-किट दाँत बाजाती
पछिया के संग आई सरदी

सिकुड़ रहे नाना मेड़ों पर
थर-थर काँप रही है नानी,
बँध जाती कंपकंपी सभी को
छूते ही पोखर का पानी।
नदी-नाल नहरों के जल में
इसने कितनी सिहरन भर दी।

रात बड़ी है लंबी होती
दिन जल्दी ढल जाता है,
गरम कोट कंधे पर चढ़कर
सांझ-सबेरे इठलाता है।
बार-बार है हवा छिंकती
हालत कैसी इसकी कर दी?

छत के ऊपर धूप बुलाकर
बड़े प्यार से है बतयाती,
साथ खेलने को है कहती
जब तक नहीं लौटकर जाती।
कपड़े गरम निकाले सबने
अपनी गंजी-धोती धर दी।