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दाल बाटियों के दिन / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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फूल हंसे पत्ते मुस्काए,
दाल-बाटियों के दिन आए।

आंगन बीचोबीच अभी मां,
ने कंडे सुलगाए।
बड़े-बड़े बैंगन लेकर फिर,
उनके बीच दबाए।

बैठ पटे पर चाची थीं जो,
बाटी गोल बनातीं।
इसका क्या इतिहास रहा क्या,
था भूगोल बतातीं।
बाल मंडली फ़िल्मी गाने,
ताक धिना धिन-धिन धिन गाए।

धूप हल्दिया ओढ़े थे सिर,
पर सब जेठे सयाने।
नाच दिखाया काकी ने तो,
गाया था कक्का ने।
अपने-अपने हुनर और हाथ,
कंडे सभी बताते।
लोग अचानक हुए पात्र थे,
जैसे परीकथा के।

ना जाने क्यों छोटी भाभी,
झुका नज़र हंसकर शर्माए।

घी से भरे कटोरों में जब,
गोल बाटियाँ नाचीं।
हृदय हुआ फुटबॉल उछाल यह,
बात सौ टका सांची।
लड्डू बने चूरमा के थे,
कितने मीठे-मीठे।
मजे-मजे से खाए थे बस,
गए गले के नीचे।
खाने वाली पता नहीं क्यों कैसे,
फिर भी नहीं अघाए।

दाल-बाटियाँ भटा बना था,
कितना भला-भला था।
जिसके रग-रग कण-कण में बस,
मां का प्यार मिला था।
बड़े-बुजुर्गों ने दिल से ही,
इतना प्यार मिलाया।
मौसम जैसे फूल बना हो,
ताजा खिला खिलाया।
सूरज छुपा छुपाउअल खेले,
बदली फिर-फिर स्वांग रचाए।