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दिल को जहान भर के मुहब्बत में गम़ मिले / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

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दिल को जहान भर के मुहब्बत में ग़म मिले
कमबख्त़ फिर भी सोच रहा है कि कम मिले

रोई कुछ और फूट के बरसात की घटा
जब आंसुओं में डूबे हुए उस को हम मिले

कुछ वक्त़ ने भी साथ हमारा नहीं दिया
कुछ आप की नज़र के सहारे भी कम मिले

आंखें जिसे तरसती हैं आये कहीं नज़र
दिल जिस को ढूंडता है कहीं वो सनम मिले

बे-इख़्तियार आंखों से आंसू छलक पड़े
कल रात अपने आप से जिस वक्त़ हम मिले

जितनी थीं मेरे वास्ते खुशियां मुझे मिलीं
जितने मेरे नसीब में लिक्खे थे ग़म मिले

फ़ाक़ों से नीम-जान, फ़सुर्दा, अलम-ज़दा
ग़म से निढाल, हिन्द के अह्ले-क़लम मिले

कुछ तो पता चले कहां जाते हैं मर के लोग
कुछ तो सुरागे़-राह-रवाने-अदम मिले

खोया हुआ है आज भी पस्ती में आदमी
मिलने को उस के चांद पे नक़्शे-क़दम मिले

'रहबर` हम इस जनम में जिसे पा नहीं सके
शायद कि वो सनम हमें अगले जनम मिले