भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल दिया है हम ने भी वो माह-ए-कामिल देख कर / शेर सिंह नाज़ 'देहलवी'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिल दिया है हम ने भी वो माह-ए-कामिल देख कर
ज़र्द हो जाती है जिस को शम-ए-महफिल देख कर

तेरे आरिज़ पे ये नुक़्ता भी है कितना इंतिख़ाब
हो गया रौशन तिरे रूख़्सार का तिल देख कर

क़त्ल करना बे-गुनाहों का कोई आसान है
ख़ुश्क क़ातिल का लहू है ख़ून-ए-बिस्मिल देख कर

बल्ल्यिों फ़र्त-ए-मसर्रत से उछल जाता है दिल
बहर-ए-ग़म में दूर से दामान-ए-साहिल देख कर

आईने ने कर दिया यकताई का दावा ग़लत
नक़्श-ए-हैरत गए अपना मुक़ाबिल देख कर

देख तो लें दिल में तेरे घर भी कर सकते हैं हम
दिल तो हम देंगे तुझे लेकिन तिरा दिल देख कर

देखिए राह-ए-अदम में और पेश आता है क्या
होश पर्रां हो रहे हैं पहली मंज़िल देख कर

आरज़ू-ए-हूर क्या हो ‘नाज़’ दिल दे कर उन्हें
शम्अ पर क्या आँख डालें माह-ए-कामिल देख कर