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दिव्यता / मनीष मूंदड़ा

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सूर्योदय का तेज
अपनी लालिमा बिखेरता मेरे चेहरे पर
अपनी आँखों को बन्द कर
मैं सबकुछ ख़ुद में ही समाहित करना चाहता हूँ
मेरी सारी अधूरी इच्छाएँ
मेरी अनिश्चिताएँ
मेरे सारे भ्रम
टूटी उम्मीदें, सारे गम
बहुत सारी उलझने
ये सब मानो जैसे सिमट कर मेरे अंतर्मन में विलीन हो रहे हैं
जैसे मेरे अंदर का मसीहा जगा कर
मेरे हौसलों को बढ़ा रहें हैं
मेरी चेतना कि लौ को और प्रखर बना रहें हैं।